Indus

Saturday, September 24, 2011

बेटी

हर पल खुशिया फैलाती रहती
एक नदिया जैसे बहती रहती
कहीं चमकती  ओस की बूँद
कहीं अंधेरो में घिरी रहती
कभी फूलो सी नाजुक बन लहराती
कभी बन चट्टान तूफानों से लडती
एक ख़ुशी किसीको देने को खुद
काटों पर भी चल जाती
घर की लाज बचने को वो
खुद की कुरबानी दे जाती
एक प्यार भरी नजर से ही वो
सौ दुखो में भी हँसा जाती
एक घर में परायी अमानत है
दूजे में भी परायी ही मानी जाती
हर दुःख हर दर्द खुद में समेटकर
एक मकान को घर बनाती
वो सौ कष्ट सहकर भी खुद
हर मुश्किल से बचा जाती
पर फिर भी कोई उसे अपना न सके
कहीं जन्म से पहले कही शादी के बाद
कोई खुद मार देता है कोई मरने को मजबूर कर देता
फिर भी कभी शिकायत नही 
कोई शिकवा नही लबों पर 
बस किसीकी खुशियों की खातिर मुस्काती 
किसी घर ख़ुशी की लहर बन जाती
किसी घर आने से पहले ही मर जाती
कभी नवदुर्गा बन पूजी जाती 
कभी काली बन हर दुःख से लडती
इतने उपकार हैं बेटी के पर
फिर भी बस कविता बन रह जाती

Thursday, August 25, 2011

सावन


कुछ अजीब सा आलम है अहसासों का
बाहर ख़ुशी के बहते पैमानों का
दिल के भीतर दर्द के सैलाबों का
वो सावन के झूलो और ठंडी फुहारों का
हर पल हँसती गाती उन बहारो का
कुछ अजीब सा आलम है अहसासों का
आज की व्यस्त जिंदगी में बेमाना
पर बीती कुछ भीगी सुहानी यादो का
वो अदरक की चाय वो भीगे हुए हम
उन गरमा गरम पकौरों का
सच कुछ अजीब सा आलम है अहसासों का
 

Wednesday, January 5, 2011

हर अपना भी बेगाना हो जाता है

अपने पर विश्वास अगर हो,
इंसान सब कुछ सह जाता है
क्या अपनी नजरो से गिरकर,
कोई कही खुश रह पाता है
सपने पूरे होने जाने पर,
हर कोई खुशिया बिखराता है
टूटते हुए सपनो को देख क्यों
हर कोई मन में ही घबराता है
खुशिया मिलने पर जब इक,
अन्जान भी अपना बन जाता है
फिर कोई दुखों  से घिरने पर,
हर अपना भी बेगाना हो जाता है